इस नाम से संबोधित कर सकतीं हैं न साँसें अब भी?? रिश्तों की प्रगाढ़ता अपना स्नेह खोजतीं हैं, तुम्हारी आहट में.. तुम प्रेम के परिचायक हो!
मेरे होने के संदर्भ में तुम्हारी याद या तुम्हारे स्पर्श में सम्मिलित मेरा अस्तित्व!
तुम आहट हो, पोर की स्याही वाली..
तुम्हारा ही..
प्रिय मित्र..
इन दिनों चिट्ठी का प्रचलन लुप्त हो चला है..परन्तु तुम्हें तो पत्र लिखना ही था.. तुमसे गाँव की सौंधी सुगंध अब तक सुरक्षित है, और खेत-खलियान की मिटटी.. तुमसे ही रंगत बची है अब तलक आत्मीयता से लिपे चूल्हे-चौके की..!!! लौट आओ कि बुलाती हैं पगडण्डीयां..थरथराती हैं झूलों की रस्सियाँ..सकपकाती हैं बैलों की घंटियाँ..
सब तुम्हारी स्नेहहिल प्रतिमूर्ति चित्त में बसा देखते हैं एक ऐसा स्वप्न जो जीवंत होगा तो समूचे प्रांत में भर देगा असीम सुख-समृद्धि और शान्ति..!!
तुम्हारी राह देखता हुआ..
एक भूला-बिसरा मीत..